आज हम आपसे रूबरू करवा रहें हैं बहु आयामी हरफ़न मौला ठेठ हरियाणवी लोक कलाकार हरियाणवी संस्कृति के पैरोकार इन्दर सिंह लाम्बा से जोकि आज भी अपनी त्वचा और फिटनेस से अपनी उम्र को मात देते दिखाई जान पड़ते हैं.
इनका जन्म छ दशक पूर्व छ अगस्त वर्ष 1961 में हरियाणा के भिवानी जिले के बीजणा गांव के हरिचंद और सुखमा देवी के घर हुआ. पिता हरिचंद और चाचा धर्मपाल अपने समय में एक मशहूर लोक गायक व कलाकार थे और माता सुखमा एक विशुद्ध ग्रहणी थीं. आरंभिक शिक्षा गांव के स्कूल और दसवीं तक शिक्षा वर्ष 1976 में राजकीय उच्च विद्यालय ढाणी माहू भिवानी से प्राप्त की.
घर में बचपन से ही हरयाणवी लोक कला और संगीत का माहौल रहा तो बालक इन्दर मन पढ़ाई से अधिक गीत संगीत की ओर ही हो लिया. मन में कलम और किताबों की बजाय सारंगी और खड़ताल बजने लगे. इसी के चलते इन्दर ने पांच वर्षों अपने चाचा व गुरु धर्मपाल नाथ के मार्गदर्शन में कड़ी मेहनत से परम्परागत हरियाणवी लोक नृत्य, गायन, वादन के साथ अभिनय (सांग ) आदि विधाओं की बारिकियों को सीखा भी और उन्हें मंच पर सफलता पूर्वक प्रस्तुत भी किया. हरियाणा के हर लोक संस्कृति के वाद्ययंत्र हारमोनियम, सारंगी, घड़वा और बेंजो पर उनकी उनकी उंगलियां और हथेली की थाप मानो अठ खेलिया करती हो. गीता जयंती समरोह, हरियाणा कला परिषद् का कार्यक्रम हो, सूरजकुण्ड जैसे मेले हों यहाँ तक जी 20 समिट हो सभी अवसरों पर इन्दर सिंह लाम्बा ने अपने हुनर अपनी कला को जहां तक हो सके पहुंचाने का काम किया है. उनके द्वारा बनाई तथा गाई हुई रागनी जिसके बोल हैं, हेजी हेजी जगत मैं बड़ा बताया प्यार, प्यार बिना इस दुनिया के म्हां जीणा है बेकार, जगत मैं बड़ा बताया प्यार को जनता का बहुत प्यार और आशीर्वाद मिला।आज कल स्टेज ऐप ओ टी टी और अन्य प्लेटफॉर्म के माध्यम से बहुत से स्थनीय कलाकारों को काम नाम मिल रहा है. जिसके चलते अब किसी कलाकार को मुंबई की ओर रूख करने की जरूरत नहीं है.
परम्परागत हरियाणवी शैली उनकी गीत संगीत पर गहरी पकड़ के चलते इन्दर सिंह लाम्बा का चयन लोक संपर्क एवं सांस्कृतिक विभाग हरियाणा में बतौर लोक कलाकार के रूप में हो गया. अपने 40 वर्षों में बतौर लोक कलाकार उन्होंने अपने प्रदेश की लोक कला संस्कृति को देश विभिन्न राज्यों तक ही सीमित नहीं रखा अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भी पहुंचाया और देश का गौरव बढ़ाया. इन्दर ने कहा किसी भी प्रदेश या देश की जड़ें उसकी लोक संस्कृति उसी प्रकार जुड़ी रहती हैं जैसे एक बालक अपनी माँ से जुड़ा रहता जैसे एक विशालकाय वृक्ष अपनी जड़ो से जुड़ा रहता है. कला संस्कृति और लोक कला को आज सहेजने और संरक्षण की बहुत गहन आवश्यकता है नहीं तो ये सब म्युज़ियम और कुछ किताबों में रह जाएंगी.
इन्दर सिंह लाम्बा को पहला ब्रेक हरियाणवी फ़िल्म गौरव की स्वीटी में मिला जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
उन्होंने हरियाणा लोक संस्कृति के महानायक दादा लख्मी के जीवन पर आधारित बॉलीवुड के दिग्गज़ अभिनेता यशपाल शर्मा, सभी कलाकारों के बेजोड़ अभिनय, गीत -संगीत से सजी ऐतिहासिक फ़िल्म “दादा लख्मी” में काम करने और इसका हिस्सा बनने का मौका मिला जो मेरे लिए किसी पुरुस्कार से कम नहीं है. भाई यशपाल के साथ काम में बहुत ही मज़ा आया और सीखने को मिला. इस फ़िल्म का एक चर्चित गीत ” भर्ती हो ले रे…. बाहर खड़े रंगरुट रे… ” मुझ पर फिल्माया गया जिसे स्वरबद्ध भी मैंने ही किया था. ये फ़िल्म किसी सपने को पूरा होने जैसा है.
इसके अलावा स्कैम, गंगा, कच्चाधारी, हलालपुर, काण्ड 2010, तलाश और पुनर्जन्म आदि हरयाणवी फिल्मो वेब फिल्मो में हर किरदार से काफ़ी कुछ सीखने को मिला और भी कुछ फिल्मे और प्रोजेक्ट आने वाले हैं.
इन्दर सिंह लाम्बा ने कहा कि मुझे अपनी कला संस्कृति से प्रेम है और गर्व भी है क्योंकि ये ही मेरी पहचान है. मेरे माता पिता और गुरु के साथ साथ मेरी लोक संस्कृति ही मेरी प्रेरणा स्त्रोत है मेरी पहचान है.
प्रस्तुति – राजेंद्र रावत

Author: राष्ट्रीय आवाज़
