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लघु कथा: बलि

लेखक कमलेश भारतीय

पता नहीं क्यों सब गड्ढमड्ढ सा हुआ जा रहा है। ‌वह एक राजनीतिक समारोह की कवरेज करने आया हुआ है। रोज़ का काम जो ठहरा पत्रकार का! रोज़ कुआं खोदो, रोज़ पानी पियो! रोज़‌‌ नयी खबर की तलाश।

फिर भी आज सब गड्ढमड्ढ क्यों हुआ जा रहा है? क्या पहली बार किसी को दलबदल करते देख रहा है? यह तो अब आम बात हो चुकी! इसमें क्या और किस बात की हैरानी? फिर भी दिल है कि मानता नहीं । मंच पर जिस नेता को दलबदल करवा शामिल किया जा रहा है, उसके तिलक लगाया जा रहा है और मैं हूं कि बचपन में देखे एक दृश्य को याद कर रहा हूँ। ‌किसी बहुत बड़े मंदिर में‌ पुराने जमाने के चलन के अनुसार एक बकरे को बांधकर लाया गया है और उसके माथे पर तिलक लगाया जा रहा है और‌ वह डर से थरथर कांप रहा है और यहां भी दलबदल करने वाले के चेहरे पर कोई खुशी दिखाई नहीं दे रही। बस, एक औपचारिकता पूरी की जा रही है और‌ गले में पार्टी का पटका लटका दिया गया है। चारों ओर तालियों की गूंज‌ है और मंदिर में‌ बकरा बहुत डरा सहमा हुआ है । दोनों एक साथ क्यों याद‌ आ रहे हैं? यह मुझे क्या हुआ है? किसने धकेला पार्टी बदलने के लिए? सवाल मन ही मन उठता रह जाता है लेकिन बकरे की बेबसी सब बयान कर रही है…

लेखक हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष रह चुके है।

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